ऐसा तो नही की मैं उसे कुसूरवार ठहरा कर खुद अपनी कोशिशों से भाग जाना चाहता हूं?

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ऐसा तो नही की मैं उसे कुसूरवार ठहरा कर खुद अपनी कोशिशों से भाग जाना चाहता हूं?

 मेरा असली दुश्मन वो शख्स नही जिसने मेरी किसी एक कोशिश को नाकाम किया है, बल्कि मेरा असल दुश्मन मैं खुद हूँ जो मुझे दोबारा कोशिश करने से रोक रहा है..

आखिर वो दूसरा शख्स मेरे बारे में जानता ही कितना था? कितना भी क्यूँ न जानता हो पर वो मुझे मुझ से तो कम ही जानता है, बावजूद इसके मैं उससे इतनी सारी उम्मीदें रखता हूँ कि वो चाहकर भी मेरी उन उम्मीदों को पूरा नही कर सकता था, मेरा साथ न दे पाने के लिए उसके पास हज़ारो जायज़ वजह हैं। उसकी कोई मजबूरी, उसका कोई डर, उसका अहम या उसका कोई वहम। 

Photo- Ritesh Kumar Bhanu

सबसे बड़ी बात कि मेरी इन कोशिशों को, इन कोशिशों की वजहों को कोई दूसरा चाहकर भी मेरे नज़रिये से नही देख सकता था, उसका गुज़रा समय, उसके हालात, उन हालातों में उसकी प्रतिक्रिया आखिर सब कुछ तो मुझसे अलग है। 

शायद इसीलिए ईश्वर ने हर किसी को एक अलग सोच, एक अलग नजरिया दिया है। यूँ तो उसके पास हज़ारों वजह होंगी परन्तु मेरा साथ न दे पाने के लिए उसकी केवल यह एक वजह भी काफी है..

चलो उसे रहने देते हैं, पर मैं खुद तो खुद से बखूबी वाकिफ हूं ना? तो क्यों नही मैं एक और कोशिश करता, बल्कि एक ही कोशिश क्यों हज़ार कोशिशें और क्यों नही? जबकि मैं जानता हूँ कि मेरी हर कोशिश सही दिशा में है, आखिर कौन है जो मुझे मेरा ही सहारा बनने से रोक रहा है? क्या सच में कोई दूसरा इंसान मुझे ऐसा करने से रोक सकता है?

क्या मेरे लिए केवल इतना काफी नही की मैं खुद अपने ही साथ हूं? क्या मेरे खुद के साथ होने की मेरी ही नज़रों में कोई अहमियत नही है? या फिर कहीँ ऐसा तो नही की मैं उसे कुसूरवार ठहरा कर खुद अपनी कोशिशों से भाग जाना चाहता हूं? 

अगर सच में ऐसा है तो फिर उस पर इल्ज़ाम क्यूं? क्यों नही मैं यह मान लेता की अब मुझमे कोई नई कोशिश करने की हिम्मत ही नही बची है बल्कि अब मैं किसी नए बहाने की तालाश में हूं...

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