श्याम वर्ण, शरीर पे पीताम्बर, गले में वैजयंती की माला, घुंघराले केशुओँ पे मोर पंख और कमर में बाँसुरी खोंसे, कृष्ण खड़े थे अपने राधा रानी के सामने।

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श्याम वर्ण, शरीर पे पीताम्बर, गले में वैजयंती की माला, घुंघराले केशुओँ पे मोर पंख और कमर में बाँसुरी खोंसे, कृष्ण खड़े थे अपने राधा रानी के सामने।

दोपहर ढल चुकी थी। सूर्य पश्चिम को अपनाने के लिए निकल पड़ा था।

पंक्षियों ने उस दिन की आख़िरी उड़ान से पहले की सारी तैयारी कर ली थी। पेड़-पौधे धीरे-धीरे सुस्त हो रहे थे। संसार अपने समान दिनचर्या में था। कहीं कुछ अलग होने की कोई संभावना नहीं होती अगर..

"कृष्ण राधा से मिलने न आये होते।"

एक वादा जो वर्षों पहले किया गया था, एक मुलाक़ात जो ज़रूरी थी।

वादा, जो कृष्ण ने मथुरा जाते वक़्त किया था,

"राधे, मैं आऊंगा। जब तक मेरी बांसुरी में राग है और तुम्हारे हृदय में मैं हूँ। तब तक मेरी प्रतीक्षा करना.."

आज राधा की प्रतीक्षा समाप्त होने वाली थी क्योंकि कृष्ण अपना वादा निभाने आये थे।

श्याम वर्ण, शरीर पे पीताम्बर, गले में वैजयंती की माला, घुंघराले केशुओँ पे मोर पंख और कमर में बाँसुरी खोंसे, कृष्ण खड़े थे अपने राधा रानी के सामने।

"मुरली.."

राधा इतना ही तो बोल पायी थी।

कृष्ण मुस्कुरा उठे। एक उम्र उन्होंने इस संबोधन के बिना गुजारा था।

संसार ने उन्हें भांति-भांति के नाम दिए थे। किसी के 'मोहन' थे वो तो किसी के 'गोपाल'। किसी के 'केशव' थे तो किसी के 'माधव'। द्वारिका उन्हें 'द्वारिकाधीश' कहती थी। संसार उन्हें 'कृष्ण' कहता था। दुश्मनों के लिए 'चक्रधारी' थे वो, भक्तों के लिए 'मनोहर श्याम' लेकिन राधा के लिए वो बस 'मुरली' थे। 

मुरली, जिसके धुन पे राधा बरसाने से गोकुल भागी आती थी।

माँ चिल्ला के कहती, "अरी राधा! कम से कम चुन्नी तो डाल लें.."

लेकिन राधा को होश कहाँ,

"माँ, मेरा मुरली मुझे पुकार रहा..मेरे पास अब कुछ करने को वक़त कहाँ.."

और सच ही तो था, कृष्ण की बांसुरी के हर धुन में राधा बसती थी। संसार भले ही कृष्ण को एक अलौकिक बांसुरी-वादक समझे लेकिन सिर्फ राधा ही जान पायी थी कि कृष्ण की बांसुरी के हर लय से सिर्फ "राधा-राधा" ही निकलता है।

आज दोनों फिर मिले थे लेकिन इस बार पुकार राधा की थी और मिलन ख़ातिर कृष्ण दौड़े आये थे।

कृष्ण को मुस्कुराते देख राधा ने अपनी आंखें बंद कर ली। दो बूंद आँसू निकल आये। यही छवी तो थी हृदय में इतने वर्षों से। आज उसे सामने देख आंखे भी धोखा दे गयी। निर्मोही ने ज़रा सा धैर्य तो रखा होता।

कृष्ण समीप आ गये थे। उंगलियों से आंसुओ को पोछते हुए राधा को बाहों में समेट लिया, हृदय के समीप, जहां सिर्फ राधा ही थी हमेशा से।


"प्रेमी को चाहिये प्रेम और विरही को चाहिए प्रेम में डूबा स्पर्श"

और राधा को तो उनके श्याम मिल गए थे। खुद को सिमट जाने दिया उन्होंने कृष्ण के बाहों में। 

न जाने कितने पल ऐसे ही बीत गये। जब प्रेम अपने पूर्णता में अभिभूत हो रहा था।

राधा के हाथों से खुद के हाथ को उलझा, उंगलियों के पोरों को मिलाने की कोशिश करते हुए कृष्ण ने कहा,

"राधे.. बहुत प्रतीक्षा करवाया न मैंने..?

"मुरली, प्रतीक्षा मिलन के लिए होती है। मैं तो इतने वर्षो से तुम में मग्न थी। तुम तो बस मुझे मुक्ति देने आये हो।"

कृष्ण प्रतियुत्तर में कुछ न बोल सकें। 


हृदय जानता था, राधा क्या थी उनके लिए। कंस-वध के बाद, उस रात राधा ही तो थी जिसने उन्हें राह दिखायी थी वरना शंकाओं में वो तो बेचैन ही हो गए थे,

"मुरली, तुम्हारा प्रारब्ध धर्म स्थापना है जो हिंसा और अपनों के वध के मार्ग से हो कर जाता है"

रुक्मणी, सत्यभामा से विवाह के लिए राधा ने ही तो मनाया था उन्हें, 

"मुरली, स्त्री का प्रेम में होना प्रकृति का सबसे सुंदर स्वरूप में होना है। उसे ठुकराओ नहीं।"

महाभारत के समर में वो राधा ही थी जो युद्ध के इतने क्रूर स्वरूप को देख कर भी कृष्ण के क्रोध को क़ाबू में कर रखा था,

"मुरली, तुम रचयिता हो, विध्वंशक नहीं।"


और आज जब वो बस एक पुकार पे अपने राधा से मिलने आये थे तो कृष्ण को ये आभास था कि नियति ने उनका हमेशा के लिए बिछुड़ना पहले से तय कर रखा है।


"किस सोच में डूब गये मुरली" राधा ने कृष्ण के गाल को थप-थपाते हुए कहा, "मुझे आज अपनी बाँसुरी न सुनाओगे.."

कृष्ण ने कातर दृष्टि से राधा के आंखों में देखा। यहाँ भी वो बस खुद को ही देख पाये।

"राधे...."

"मुरली, बजाओ न बाँसुरी.." राधा हठ में थी। और जब राधा हठ में हो कृष्ण भला मना भी कैसे कर पाते।

अब तक सूर्य लगभग पश्चिम के करीब पहुँच गया था, शायद आज उसे भी डूबने की आतुरता थी। आसमान में पंक्षियों की लंबी कतार कोलहाल करते हुए अपने धाम को लौट रहे थे।

कदंब के चबुतरे पे बैठे आंखे बंद किये हुए कृष्ण बाँसुरी को होंठो से लगाये संसार को एक बार फ़िर मोह रहे थे। राधा उनके पैरों के पास बैठी थी, माथे को कृष्ण के गोद में रखे वो बस अपने मुरली को सुन रही थी। पक्षियों का करलव, हवाओं की सरसराहट, समय का सरपट दौड़ना सब कहीं पीछे छूट गया था जैसे उन्होंने प्रकृति को ठहर जाने का आदेश दे दिया हो। कृष्ण के लिए वहाँ पे बस राधा थी उनके गोद मे सर रखे हुए, राधा के लिए वहाँ बस कृष्ण थे बाँसुरी बजाते हुए।

और उस पल में, प्रेम के सबसे उच्चतम स्वरूप में, कल्पना और यथार्थ से परे कहीं दूर वृंदावन में सजे-संवरे कृष्ण बाँसुरी बजा रहे थे। राधा उनके समीप नृत्य कर रही थी।

आज गोपियाँ कहीं न थी, न ही कृष्ण का कोई सखा उन्हें घेरे बैठा था। वृंदावन में कोई था तो वो बस कृष्ण थे बाँसुरी बजाते हुए और राधा उनके समीप नृत्य करते हुए। 

कृष्ण के बाँसुरी की लय हर पल ऊंची होती जा रही थी और उतने ही तेज चल रहे थे राधा के कदम। उस क्षण में संगीत बिखरा हुआ था, कला सहमी हुई थी बस प्रेम ही प्रेम था और थे कृष्ण आंसुओ में डूबे हुए, बाँसुरी बजाते हुए और थी राधा, आंखों में कृष्ण बसाए, नाचते हुए।

अचानक से कृष्ण के बाँसुरी की लय टूटने लगी और मधुर ध्वनि के बदले बस एक रुदन का स्वर बचा रह गया। कृष्ण की तंद्रा टूटी, सचेत होते हुए उन्होंने आंखे खोली। 

सूर्य को पश्चिम ने निगल लिया था और छोड़ गया था बस एक रक्तिम लाली। पंक्षियों ने अलविदा कह कर अपने पंख समेट लिए थे। संसार निशब्द हो गया था।

राधा अभी भी कृष्ण के गोद मे लेटी हुई थी। उतनी ही सुंदर, उतनी ही भव्य लेकिन प्राणहीन। कृष्ण अभी भी कदंब के नीचे बैठे हुए थे, बाँसुरी होंठो से लगी हुई, उतने ही मोहक लेकिन आंसुओं में डूबे हुए।

कहीं दूर..वृंदावन में राधा कृष्ण के कंधे से लिपटी कह रही थी,

"मुरली, बाँसुरी भले ही तुम बजाते हो लेकिन उसकी धुन मैं हूँ। मैं न रहूं तो तुम कभी बाँसुरी न बजा पाओगे। जिस बाँसुरी की संसार दीवानी है वो तो बस "राधा-राधा" ही पुकारती है।"


कृष्ण उठ खड़े हुए। बाँसुरी को एक आख़िरी बार देखा और उसके दो टुकड़े कर दिए।

मुरली राधा के साथ मुक्ति पा चुका था। वहाँ से लौट कर अब बस कृष्ण आ रहे थे।


जन्माष्टमी की बहुत शुभकामनाएँ 🙏❤️

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